Bajreshwari Mata Temple, Kangra-History

Bajreshwari Mata Temple, Kangra-History

||Bajreshwari Mata Temple, Kangra-History||History of Bajreshwari Mata Temple, Kangra||

Bajreshwari Mata Temple, Kangra-History


 

वज्रेश्वरी देवी 

वज्रेश्वरी माता का मंदिर कांगड़ा में प्रतिष्ठित है। इन्हें माता भवनां वाली, कोट कांगड़े वाली, नगरकोट वाली भी कहा जाता है। कांगड़ा का पुराना नाम नगरकोट है जिसे महाभारत काल में त्रिगर्त नाम से जाना जाता था। बाण गंगा और मांझी नदियों के संगम के निकट देवी का मंदिर जालंधर पीठ के ठीक मध्य में स्थित है। दक्ष प्रजापति प्रसंग के अनुसार सती का वक्षस्थल (बायां स्तन) इस स्थान पर गिरा और वज्रेश्वरी पीठ कहलाई। इसे स्तनपीठ भी कहा जाता है। दूसरे मत के अनुसार जालंधर दैत्य का वध होने के बाद उसका पृष्ठभाग वज्र के समान कठोर हो गया था जिसे देवी ने अपने पैरों से दबा कर यहां स्थापित कर दिया। वज्र के समान कठोर शिला पर स्थित देवी वज्रेश्वरी कहलाई। देवी की पूजा त्रिपुरा सुंदरी के रूप में भी की जाती है। यहां त्रिपुरा सुंदरी पिण्डी रूप में स्थापित है। इसे त्रिदेवी अर्थात् काली, तारा और त्रिपुरा के रूप में भी पूजा जाता है।

History of Bajreshwari Mata Temple, Kangra

कांगझ पुरातात्विक दृष्टि से भी ऐतिहासिक है। कांगड़ा किले से महमूद गजनवी ने सन् 1009 में खजाना घोड़ों-खच्चरों पर लाद कर लूटा था। कहा जाता है 'भवनां वाली' की सम्पति भी गजनवी द्वारा लूटी गई और मंदिर को क्षति पहुंचाई। ‘तारीख़-ए-यामिनी' में फरिश्ता ने कहा है : "सुल्तान अपने धर्म प्रचार के जोश में नगरकोट के विरूद्ध आगे बढ़ा और मूर्तियां व मंदिर तोड़ डाले। कुछ इतिहासकारों का मत है कि जब फीरोजशाह तुगलक ने सन् 1361 में राजा रूपचंद (1360-75) से नाराज हो कर नगरकोट पर हमला बोला तो नगरकोट मंदिर की मूर्ति तोड़ कर उसके टुकड़े गाय के मांस में मिला कर बोरियों में बान्ध दिए। इन बोरियों को ब्राह्मणों के गले में बान्ध कर परेड करवाई गई। यह भी कहा जाता है कि मूर्ति को मक्का में रास्ते के किनारे फेंक दिया गया ताकि यह पैरों तले रौंदी जा सके। किंतु “तारीख-ए- फीरोजशाही” में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है। ऐसा भी माना जाता है कि लोगों ने सुलतान को बताया कि मंदिर में सिकंदर महान की रानी नौषाबा की मूर्ति है जिसे पूजा जाता है। अतः विजेता ने मूर्ति को नहीं छेड़ा। शहाबुदीन (1383-1386) ने भी इस मंदिर में लूटपाट की। शेरशाह सूरी ने 1540 में मंदिर पर हमला बोला। 'वाक्यात-ए-मुश्तकी' में उल्लेख है कि शेरशाह ने अपने जनरल खव्वास खान को नगरकोट जीतने के लिए भेजा। विजय के बाद देवी की प्रतिमा सुलतान को भेजी गई जिसने इसके टुकड़े करवा कर कसाईयों को बाट बनाने के लिए दे दिए। मंदिर मं लगे ताम्रछत्र के, जिसमें इसके दो हजार वर्ष पुराना होने की तारीख लिखी थी; पानी गर्म करने के लिए पात्र बनाए गए जिन्हें मस्जिद व महलों के बाहर रखा गया ताकि प्रार्थना के लिए जाने पर लोग उनसे पानी से लेकर पवित्र होने के लिए अपने पांव धोएं। एक अभिलेख के अनुसार मंदिर का निर्माण पन्द्रहवीं शताब्दी में हुआ। इस समय में संसार चंद प्रथम (1430 ) कांगझ का शासक था जो मुहम्मदशाह का समकालीन था। ऐसा प्रतीत होता हैं कि मंदिर का निर्माण, पुनर्निर्माण समय-समय पर होता रहा है। सन् 1905 में कांगड़ा में आए भीषण भूकम्प से मंदिर को बहुत क्षति हुई। वर्तमान मंदिर 1905 के बाद कांगड़ा टेम्पल रेस्टोरेशन एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन कमेटी द्वारा मेयो कॉलेज लाहौर के आर्ट्स स्कूल के प्रिंसिपल सरदार बहादुर भाईराम सिंह कर देखरेख में बनाया गया। धर्मशाला से अट्ठारह किलोमीटी दूर, देवी का मंदिर कांगड़ा किला से कुछ ही दूरी पर, उसी ऊंचाई पर स्थित है जिससे प्रतीत होता है कि कभी किला और मंदिर एक दूसरे से जुड़े हुए थे। कुछ समय पहले तक किले के पास बाजार को पुराना कांगड़ा के नाम से जाना जाता था। इस समय किला खण्डहर होने के कगार पर है और पुराना कांगड़ा भी उजड़ गया है। वर्तमान में मंदिर नये कांगड़ा बाजार के मध्य में स्थित है। यह भी माना जाता है कि पहले यह मंदिर कागड़ा किले में ही था, बाद में आक्रमणकारियों के भय से इसे इस स्थान पर बदला गया । देवी का यह स्थान तन्त्रविद्या का प्रमुख केन्द्र रहा है।

 वज्रेश्वरी के पूर्व की ओर बैजनाथ में तारा देवी, दक्षिण में ज्वालामुखी, वनखण्डी में बगुलामुखी और उत्तर में चामुण्डा देवी साधना पीठ रहे हैं। माता की पूजा तांत्रिक विधि से की जाती है। यहा पूजा की सारी सामग्री विशिष्ट है। देवी को दस महाविद्याओं में त्रिपुरा सुंदरी के रूप में पूजा जाता है। माता की पिण्डी के स्नान के बाद आगे स्थातिप श्रीयन्त्र की पूजा की जाती है। चैत्र, श्रावण और आश्विन के नवरात्रों में विशेष मेले लगते हैं। चैत्र नवरात्रों में व्रज भूमि अर्थात् उत्तर प्रदेश के लोग देवी को अपनी कुलदेवी मानते हुए पीले वस्त्र पहने कर बड़ी संख्या में यहां आते हैं। नवरात्रों के दौरान नवचण्डी पाठ तथा हवन किया जाता है। मकर संक्रान्ति को घृतमण्डल के आयोजन में सात दिनों तक देवी के शरीर पर घी का लेप किया जाता है।




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